राजस्थान : जीने और जानने का एक अनूठा प्रयोग
[90 का दशक]
"'रोटी-रोजगार का नहीं, सूचना का अधिकार चाहिए-'"
यह नारा उन दिनों पत्रकारों के किसी ऐसे समूह का नहीं था, जो सूचना देने की ही रोटी खाते थें।
यह नारा राजस्थान के सुदूर गांवों मे रहने वाले उन गरीब मजदूर-किसानों का था,
जिनके पास न तो रोजगार के अवसर थे और न ही उन्हें दो वक्त की रोटी मिलती थी।
इन गरीबों ने पहले रोटी-रोजगार की ही मांग की थी,
लेकिन कुछ ही सालों बाद उन्हें पता चला कि
केंद्र-राज्य सरकारों द्वारा संचालित विभिन्न विकास कार्यक्रमों में भारी घपला होता है,
तब उन्होंने '"हमारा पैसा-हमारा हिसाब'" का नारा दिया।
अधिकारियों से सरकारी पैसे का हिसाब मांगना शुरू कर दिया
और देखते ही देखते यह मांग "जानने के अधिकार" में तब्दील हो गयी।
कुछ एक कस्बों और जिला मुख्यालयों से होते हुए इन गरीबों ने राज्य की राजधानी जयपुर में दस्तक दी,
जिसकी अनुगूंज दिल्ली भी पहुंची।
नामी गिरामी पत्रकार , लेखक ,वकील, कुछ एक नौकरशाह और यहां तक कि सत्ताशीर्ष पर बैठे हुए लोग भी उनकी इस आवाज को सुनने के लिए बाध्य हुए।
राज्य ही नहीं , केंद्र स्तर पर सूचना के अधिकार कानून निर्माण प्रक्रिया शुरू हुई।
सौजन्य :: हमारा लोकतंत्र और जानने का अधिकार (अरुण पाण्डेय)