अमेरिकी सैनिकों के लौटने के बाद अफगानिस्तान के कैसे है हालात, तालिबान की वापसी तय?

Savan Kumar
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अफगानिस्तान में 20 साल तक चले सबसे लंबे युद्ध के बाद अमेरिकी सेना स्वदेश लौट रही है। अमेरिकी सैनिक बगराम एयरबेस से लौट आए हैं जहां से युद्ध किया गया था। अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी ने गणना की है कि अमेरिका ने युद्ध में क्या खोया और क्या हासिल किया। उनके मुताबिक अमेरिका ने अफगानिस्तान में 167 लाख करोड़ रुपए खर्च किए। इस दौरान निजी सुरक्षा ठेकेदारों समेत 6,384 अमेरिकी सैनिकों की मौत हुई है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अमेरिकी सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान का क्या होगा।

लॉन्ग वॉर जर्नल के अनुसार, 1 मई को सैनिकों की वापसी की तैयारी शुरू हो गई थी और तालिबान ने प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया था। 1 मई को अफगानिस्तान के 407 जिलों में से 73 पर तालिबान का नियंत्रण था, लेकिन 29 जून तक यह बढ़कर 157 जिलों तक पहुंच गया था।

151 जिलों में तालिबान लड़ाके अफगानिस्तान सरकार के साथ लड़ रहे हैं। केवल 79 जिले ऐसे हैं जहां अफगानिस्तान की सरकार सत्ता में बनी हुई है। अमेरिकी खुफिया अधिकारियों का अनुमान है कि तालिबान छह महीने में पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा। यानी फिर वही हालात बन जाएंगे जो 2001 से पहले थे।

इसको लेकर अलग-अलग अनुमान हैं। ब्राउन यूनिवर्सिटी के कॉस्ट ऑफ वॉर स्टडी के मुताबिक, अफगान युद्ध में 2.41 लाख लोग मारे गए थे। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच 2,670 किलोमीटर लंबी सीमा पर सीमा पार से गोलीबारी और अमेरिकी ड्रोन हमलों में 71,344 नागरिक मारे गए। इसमें अफगानिस्तान में 47 हजार और पाकिस्तान में 24 हजार मारे गए।

विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, अफगानिस्तान में 6,384 अमेरिकी सैनिक मारे गए। इनमें निजी सुरक्षा ठेकेदार शामिल हैं जो अमेरिका की ओर से लड़ रहे थे। वहीं, 9.7 लाख से अधिक सैनिक अपंग हो गए। अफगान सेना और पुलिस ने भी अमेरिका की ओर से लड़ाई लड़ी और इसमें 66 हजार से 69 हजार मौतें हुईं।

तालिबान लड़ाकों समेत मारे गए विद्रोहियों की संख्या करीब 84 हजार है। अगर आप इसकी तुलना भारत और पाकिस्तान के बीच हुई झड़पों से करें तो हमने भी बड़ी संख्या में जवानों को खोया है। सेना ने 2016 में एक RTI अर्जी पर बताया था कि 2001 से 2016 के बीच 4675 भारतीय जवान शहीद हुए थे, वहीं, 1990 से 2017 तक 27 साल में जम्मू-कश्मीर में 41 हजार से ज्यादा मौतें हुई हैं। यानी हर साल 1,500 से ज्यादा।

11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अल कायदा के हमले के बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 'आतंक के खिलाफ युद्ध' की घोषणा की। उस समय अलकायदा के ज्यादातर नेता अफगानिस्तान में थे। और, तालिबान का शासन था। तब अमेरिका ने तालिबान को ओसामा बिन लादेन समेत अल कायदा के सभी नेताओं को सौंपने को कहा था।तालिबान ने इसे खारिज कर दिया था।

इसके बाद अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो गठबंधन सेना ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। मई 2003 तक हिंसक संघर्ष छिड़ गया। तब अमेरिकी रक्षा सचिव डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने सैन्य अभियान की समाप्ति की घोषणा की। तालिबान शासन समाप्त हो गया था। संक्रमणकालीन सरकार बनी। अलकायदा के नेता पाकिस्तान में अपने सुरक्षित ठिकानों में भाग गए। हालाँकि, यह युद्ध सही मायने में कभी समाप्त नहीं हुआ है और न ही अब तक अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लौटी है।

अमेरिका बहुत पहले ही समझ गया था कि वह इस युद्ध को जीतने की शक्ति में नहीं है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफगानिस्तान से घरेलू सैनिकों को वापस करने का भी वादा किया था। लेकिन अगर अमेरिका ऐसे ही लौटा होता तो यह शर्म की बात होती। वह चेहरा बचाना चाहता था। जुलाई 2015 में, ओबामा प्रशासन ने तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच मध्यस्थता की।

पहली बार दोनों पक्षों के बीच पाकिस्तान के मुरी में बातचीत हुई। लेकिन इसी बीच अफगान सरकार ने घोषणा की कि दो साल पहले मुल्ला उमर को मार दिया गया था। खैर, बातचीत अटक गई। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तब अफगानिस्तान के लिए एक विशेष दूत ज़ाल्मय खलीलज़ाद को नियुक्त किया। ताकि तालिबान से सीधे बातचीत की जा सके। मामला आगे बढ़ा और फरवरी 2020 में दोहा में समझौते पर दस्तखत हुए। उस समय 12,000 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में थे।

जून में कतर के एक अधिकारी के हवाले से कहा गया था कि भारत ने दोहा में तालिबान से संपर्क किया था। इन रिपोर्टों का खंडन नहीं किया गया है। खास बात यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार के कैबिनेट विस्तार के दिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर मॉस्को के लिए रवाना हो गए। तीन दिवसीय यात्रा के दौरान भी एजेंडा तालिबान और अफगानिस्तान बना रहा। एक तरह से अमेरिका के बाद भारत ने भी तालिबान को मंजूरी दे दी है।

भारत इस बात पर भी सहमत हो गया है कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान में तालिबान की भूमिका अहम होगी। द वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार, अमेरिकी खुफिया समुदाय को लगता है कि अफगान सरकार छह महीने तक भी तालिबान का सामना नहीं कर पाएगी।

जनरल ऑस्टिन मिलर से लेकर राष्ट्रपति बाइडेन तक कोई भी अमेरिकी नेता अफगान सरकार को लेकर आश्वस्त नहीं है। इससे जुड़े एक सवाल पर बिडेन ने कहा कि अफगानिस्तान में सरकार चलाने की क्षमता है। लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान का पलड़ा भारी हो गया है। अमेरिकी सेना के वापस लौटते ही उन्होंने हमले तेज कर दिए हैं।

 

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